Ajab Gajab : कहते हैं कि भारत में कोस-कोस पर पानी बदले, चार कोस पर वाणी। इसमें कोई शक भी नहीं है। हम अक्सर देखते हैं कि भारत के एक हिस्से में जो शब्द बहुत अच्छा माना जाता है, वही शब्द दूसरे किसी हिस्से में बहुत बुरा भी माना जा सकता है। इसी तरह विभिन्न वस्तुओं या फलों के नाम भी अलग-अलग जगहों पर अलग-अलग हो सकते हैं। कई बार तो यह नामकरण इतना भ्रमित करने वाला होता है कि दिमाग ही भन्ना जाए। लेखिका मधु के साथ भी ऐसा ही कुछ रोचक और मजेदार किस्सा हुआ। इसे उन्होंने अपने फेसबुक पेज पर भी शेयर किया है। तो आइए पढ़ें उनके द्वारा शेयर किया गया यह किस्सा, उन्हीं के शब्दों में…
घरेलू सहायिका ललिता ने बताया तो अचंभा हुआ कि मीठे सीताफल की सब्जी कोई कैसे बना सकता है। छत्तीसगढ़ में जिस सब्जी को हम कुम्हड़ा कहते हैं, उसे ही दिल्ली में सीताफल के नाम से जानते है, लेकिन मुझे नहीं मालूम था। मैं जिसे सीताफल कह रही थी, उसे दिल्ली में शरीफ़ा कहते हैं। मतलब ललिता और मेरा सीताफल अलग-अलग था। मैं फल की, तो वो सब्जी की बात कर रही थी।
मैंने ललिता से फिर सवाल किया “सीताफल की सब्जी बहुत मीठी लगती होगी?” चूंकि वो कद्दू के विषय में बता रही थी तो उसने हाँ में हाँ मिलाया, “हाँ दीदी, सीताफल तो हल्का मीठा होता है।” सीताफल के काले, कड़े बीजों की सोच मेरे अचरज का पारावार नहीं था, “ललिता उसमें इतने बीज होते हैं तो सब्जी कैसे बनती है?”
कुम्हड़े में भी बीज होते हैं तो ललिता ने फिर जवाब दिया, ” सीताफल के सारे बीज निकाल कर ही सब्जी बनती है।” मैं झुंझला गयी, “हद करते हो दिल्ली वालों। इतने स्वादिष्ट फल में नमक-मिर्ची डालकर सत्यानाश कर देते हो।” ललिता को यकीन नहीं हो पा रहा था कि मैंने सीताफल की सब्जी कभी नहीं सुनी, “दीदी आप लोग सब्जी नहीं बनाते तो सीताफल कैसे खाते हो?”
ललिता की नादानी पर तरस आया, “सीताफल को तू एक बार कच्चा खा कर देखना। सब्जी बनाना छोड़ देगी। मैं तो चम्मच से खाती हूँ और एक बार में तीन-चार खा सकती हूँ।” ललिता के चेहरे पर दया के भाव थे, “आप छत्तीसगढ़ में जंगल साइड के हो तो उधर खाते होंगे। सीताफल तो कच्चा खा ही नहीं सकते। एक फल तीन से 4 किलो का होता है। आप दो कैसे खा लेते हो, वो भी चम्मच से?”
अब मेरा माथा ठनका। छत्तीसगढ़ में गेंद के आकार का सीताफल दिल्ली पहुँचते-पहुँचते तीन से चार किलो का कैसे हो गया। बचपन से सुनती आई थी कि दिल्ली दूर है, लेकिन इतनी भी दूर नहीं कि फलों के वजन ऐसे बदल जाए। मैंने गूगल करके कस्टर्ड एप्पल की तस्वीर दिखाई, “ललिता तुम इसकी सब्जी बनाकर खाती हो?”
ललिता ने सर ठोका, “हम शरीफा की सब्जी क्यों बनाएंगे। पागल थोड़े न हैं? ” अब हम दोनों को गफलत समझ आई और खूब हँसे। उसने बताया कि वो लोग पेठा बनाने वाली सफेद सब्जी को कद्दू और पीले कुम्हड़े को सीताफल कहते हैं। मैंने कहा- हम मीठा पेठा बनाने वाले सफेद कद्दू को ‘रखिया’ कहते हैं। सही बात है -“कोस-कोस पर पानी बदले, चार कोस पर वाणी।” भारत इतना बड़ा देश है कि “एक ही शब्द के अनेक मायने और एक ही मायने के अनेक शब्द हो सकते हैं।”
दिल्ली में पहली बार गोलगप्पे खाने गयी थी तो ठेले पर कहा, “भैय्या गुपचुप तीखा बनाना।” ठेलेवाले ने पूछा, “क्या आपके वहाँ गोलगप्पे छिप कर खाते हैं, जिसकी वजह से इसे गुपचुप कहते हैं?” दिल्ली में गोलगप्पों को ‘पानी बताशे’ भी बोलते सुना जबकि छत्तीसगढ़ में दीपावली की पूजा पर लक्ष्मी जी को चढ़ने वाले शक्कर की टिकिया को बताशे कहते हैं। नमकीन में पड़ने वाले काले दाने-सी कलौंजी नहीं मिली दिल्ली की दुकानों में। मुश्किल से पता चला कि कलौंजी यहाँ मंगरैला नाम से जाना जाता है। छत्तीसगढ़ के मुनगा को यहाँ सहजन बुलाते हैं और वहाँ की बरबट्टी दिल्ली में ‘लोबिया’ हो गयी। छत्तीसगढ़ में पत्ता गोभी को हम ‘बंदी’ कहते हैं। छत्तीसगढ़ में जिस फल को खरबूज कहते हैं उसे दिल्ली में कचरा बोलते हैं। यहाँ कुम्हड़े ने कई नाम धरे हैं जिसमें सीताफल के अलावा काशीफल भी एक है।
बेटा इस साल पुणे हॉस्टल में गया तो उस मालूम हुआ कि आज हॉस्टल में कांदा भजिया मिलेगा। उसे कांदा मतलब शकरकन्द मालूम है। अमरूद को पुणे में पेरू, दिल्ली में अमरूद कहते हैं जबकि छत्तीसगढ़ में बिही और जाम। पुणे में मूंगफली को सींगदाना और एप्पल को सफ़रचन्द। वैसे सफरचन्द किसी इंसान का नाम लगता है। सफरचन्द किस फल का नाम है, पूछने पर उस व्यक्ति ने व्याख्या की कि लाल होते हैं। मैंने कहा, “टमाटर?” “अरे नहीं कश्मीर में होते हैं। डॉक्टर कहते हैं कि रोज एक खाने से बीमारी दूर होती है।” तब समझ आया कि सेब की बात कर रहे हैं।
महाराष्ट्र के हॉस्टल में बेटा सब्जियों के नए नाम सीख रहा है। बैगन का नया नाम वांगी, मटर का बटाना और आलू का बटाटा हो जाता था। बेटे ने ले देकर किसी तरह कद्दू को दिल्ली में सीताफल बोलना सीखा तो पुणे पहुँचकर कद्दू फिर नाम बदलकर ‘लाल भोपला’ हो गया। पुणे में धनिया को कोथंबीर, अदरक को आल़, राई को मोहरी कहते हैं।” चाय में जरा आल (अदरक) ज्यादा डालना” सुना तो लगा अरे! चाय में आलू क्यों डाल रहे? पुणे में तो नमक ने गजब ही कर दिया। नमक को स्वाभाव के विपरीत ‘मीठ’ कहते हैं। शक्कर को नमक क्यों नहीं बुलाते फिर?
छत्तीसगढ़ में बैगन- भटा, टमाटर- पताल, भिंडी- रमकेरिया, गंवार फल्ली- चुटचुटइया, अरबी- कोचई होती है। सोचकर देखिए सब्जियों के चार्ट के चार्ट बदल गए। मैं वेजिटेरियन हूँ। पुणे में होटलों में जगह-जगह बोर्ड लगे होते हैं- यहाँ ताज़े कुम्हड़ी मिलते हैं। हर जगह यह पढ़कर मैंने सोचा कि कुम्हड़ी भी कद्दू का ही नाम है। होटल में जाकर पूछने पर पता चला कि मुर्गा को पुणे में कुम्हड़ी कहते है। पुणे में भगवान जी ने भी नाम बदल लिया- पाडूरंगा, भगवान विठ्ठल। गहराई से जानने की कोशिश की तो ज्ञात हुआ भगवान श्री कृष्ण को ही विट्ठल महाराज कहते हैं।
बेटे को महाराष्ट्र में हलवा का नया नाम मालूम हुआ- ‘शीरा’ जबकि दिल्ली आने के बाद सोन पापड़ी का नाम पतिसा हो गया। छत्तीसगढ़ में मूंगफल्ली को फल्लीदाना कहते हैं। दिल्ली में फल्लीदाना मांगा तो दुकानदार ने कौन सी फल्ली पूछा। मैंने बार-बार फल्लीदाना कहा तो उन्हें नहीं समझा। फिर बताया पोहे में डलता है। तब उन्होंने कहा, “अच्छा मूंगफली।” अब फल्लीदाना कहना छोड़, मूंगफली कहती हूँ तो बेटे ने पुणे में सेंगदाना कहना शुरू कर दिया। अब फोन पर पूछो तो बताता है लाल भोपटा (कद्दू) की सब्जी खाया।
राजस्थानी परिवार के यहाँ एक कार्यक्रम में गयी तो उनकी माता जी ने मुझे बेटी मानकर पैर छू शगुन का लिफाफा पकड़ाया। मैंने अपनी सहेली से कहा- आँटी ने मुझे क्यों रुपये दिए?
उसने कहा, “अरे, तुम्हें धोके (शगुन ) का दिया।”
मुझे लगा मुझे किसी और के धोखे में पैसे पकड़ा दिए। मैं लिफाफा जिद से लौटाने लगी कि किसी और के धोखे का पैसा मैं कैसे लूं? बाद में धोके का अर्थ पता चला और सब लोग बहुत हँसे।
छत्तीसगढ़ में भगौना या पतीले को गंजी कहते हैं जबकि बिहार में गंजी मतलब बनियान। एक बार एक राजस्थानी महिला ने बताया उसने बाज़ार से 100 रुपये का घाघरा लिया। मैंने लालच में आँखे फाड़ दी। भला 100 रुपये में कहाँ घाघरा मिला। उन्हें घाघरा दिखाने कहा तो सब्जी पकाने वाली बड़ी का पैकेट लाकर दिखाया। वो सब्जी बनाने वाली बड़ी को घाघरा कह रही थी।
तेलंगाना में इडली डोसा को टीफिन कहते हैं। मेरी एक तमिल कलीग हमेशा कहती थी- रात के डिनर में हम टिफिन (इडली डोसा) ही खाते हैं। मुझे लगा कितनी आलसी है। खाना बनाने से बचने टिफिन बंधा लिया। मैंने कहा- दो लोगों का खाना बनाने में कितना टाइम लगता है। टिफिन क्यों खाती हो? उसने जवाब दिया- आप नार्थ इंडियन लोगों को रोटी बनाने की आदत है तो आलस नहीं आता। हम साउथ के लोग एक टाइम तो टिफिन (इडली डोसा) खाते ही हैं। बहुत दिनों बाद उसके टिफिन का मतलब समझने पर हम दोनों खूब हँसे।
जब हम अपना शहर और राज्य छोड़ते है तो घर, गलियाँ और लोग ही नहीं, कुछ शब्द भी हमें हमेशा के लिए छूट जाते हैं।
अपनी भाषा, धर्म, रंग या जाति के लिए कट्टर आग्रह या अगाध श्रेष्ठता-बोध दिमाग के दरवाज़े बंद करता है। सर्वग्राह्यता और समभाव हमें बेहतर इंसान बनाता है। नई चीजों की स्वीकार्यता, सीखना और शामिल करने का अर्थ जड़ से कटना नहीं बल्कि विकसित और समृद्ध होना है।
ललिता से कुछ ऐसे शब्द सीखे जो कभी नहीं सुने थे, “दीदी मेरा वीरवार का उपवास रहता है।”
मैंने विस्मय से पूछा, “सन्डे उपवास तो पहली बार सुन रही।”
ललिता से स्पष्ट किया, “रविवार नही वीरवार।”
मैंने फिर सवाल किया, “ललिता, वीरवार किस दिन को बोलते हैं।”
ललिता ने समझाया, “दीदी गुरुवार को वीरवार बोलते हैं।”
एक दिन सफाई करती हुई कहने लगी, “परली साइड वाली मेट्रो में जाऊँगी।” मुझे लगा ‘परली’ किसी जगह का नाम है मगर मालूम हुआ कि उरली साइड मतलब दाई तरफ, परली साइड मतलब बायीं तरफ। यहाँ राजगीर के लड्डू को अमरनाथ या चौलाई के लड्डू कहा जाता है, लौकी को घीया और चौराहे को गोल चक्कर कहते हैं जबकि बिहार में चौक को गोलाम्बर कहते हैं। दिल्ली में जो सबसे जबरदस्त सुना वो था टक्कर, टक्कर मतलब तिराहा- आगे जाकर एक ‘टक्कर’ मिलेगा तो उरली साइड (दाई तरफ) मुड़ जाना।
पहले-पहल इन नए, अनसुने शब्दों को बोलने में हिचकिचाहट, अटपटापन और खुद को बड़ा बेचारा सा लगता है। घर छोड़कर आये लोगों में अस्थायित्व का भाव स्थायी होता है। घोंसले छोड़कर उड़े परिंदों का संघर्ष लम्बा होता है। पहली शुरुवात भाषा छूटने की पीड़ा ही होती है, लेकिन रिश्तों, भाषा और शहर की फितरत एक-सी होती है। जैसे-जैसे हम इन्हें जानने लगते हैं, वो भी थोड़ा-थोड़ा हमें समझने और अपनाने लगते हैं..। यात्राओं से मिला अनुभव भिन्नताओं को सम्मान देना सिखाता है। “वसुधैव कुटुम्बकम” उक्ति तो यही कहती है कि पूरी धरा ही परिवार है।
अब मैं छत्तीसगढ़ जाने पर सीताफल कच्चे खाती हूँ और दिल्ली में सीताफल (कद्दू) की सब्जी बनाती हूँ क्योंकि दिल्ली में सीताफल शराफत में रहते हुए शरीफ़ा हो जाता है। हमारे इस भव्य देश की विविधता सर आँखों पर। यहाँ एक शब्द के पर्यायवाची के साथ-साथ अनेकार्थी शब्दों की ऐसी बाहुल्यता है, जो भारत से बाहर किसी और देश में बिरले ही देखने मिलेगी।