भरत सेन, बैतूल (MP Forest News)। भारतीय वन अधिनियम 1927 की धारा 52 में मध्य प्रदेश राज्य सरकार द्वारा 1984 में संशोधन किए गए और वन अपराध में जप्तशुदा वाहनों एवं मशीनों को राजसात की व्यवस्था की गई। वन विभाग मुकदमा तैयार करता हैं और वन विभाग के आला अधिकारी मुकदमे की सुनवाई करते हैं। वन परिक्षेत्राधिकारी वैधानिक कार्यवाही पूर्ण कर प्राधिकृत अधिकारी एवं उप वन मंडलाधिकारी (SDO) के समक्ष पेश करते हैं, वाहन स्वामी को नोटिस जारी किया जात हैं। वन अदालत में वाहन स्वामी को विधिक सहायक उपलब्ध नहीं करवाया जाता हैं।
वाहन स्वामी की ओर से अधिवक्ता को पैरवी नहीं करने दिया जाता हैं। उप वन मंडलाधिकारी की अदालत में वन अपराध का विचारण किया जाता हैं, गवाहों का परीक्षण एवं प्रतिपरीक्षण किया जाता हैं। वाहन स्वामी से कहा जाता है कि वह गवाहों का प्रतिपरीक्षण करें। वाहन स्वामी से बचाव साक्षी पेश करने के लिए कहा जाता है, जिसका प्रतिपरीक्षण वन अधिकारी करते हैं। करीब 01 वर्ष का समय गुजर जाता है और अंततः वाहन राजसात हो जाता हैं। वन अधिकारी वाहन स्वामी को सुझाव देते हैं कि अपील अधिवक्ता के माध्यम से करें।
अपीलीय अधिकारी एवं मुख्य वन संरक्षक की अदालत में वाहन स्वामी से कहा जाता हैं कि पैरवी के लिए अधिवक्ता नियुक्त करें। अधिवक्ता नियुक्त किया जाता हैं अपील की सुनवाई में करीब 01 वर्ष गुजर जाता है। यदि मामले में कोई तकनीकी दोष निकलता हैं तो पुनः आदेश हेतु उप वन मंडलाधिकारी को लौटा दिया जाता है। स्थिति तो वही है कि अधिवक्ता पैरवी नहीं कर सकते हैं, अधिवक्ता को सुना नहीं जाता हैं।
उप वन मंडलाधिकारी पुराने आदेश को पुनः दोहरा देते हैं जिसमें करीब 06 माह का समय गुजर जाता है। अपीलीय अधिकारी सह मुख्य वन संरक्षक की अदालत में पुनः अपील दाखिल होती है, करीब 01 वर्ष बाद आदेश पारित होता हैं। इसके बाद मामला जिला न्यायालय में धारा 52 (ख) में पुनरीक्षण याचिका पेश की जाती हैं। पुनरीक्षण न्यायालय इस बात को स्वीकार करने के लिए तैयार ही नहीं हैं कि उप वन मंडलाधिकारी की अदालत में अधिवक्ता नियुक्त करने का अवसर ही नहीं दिया गया था।
वन विभाग पुनरीक्षण न्यायालय को हाईकोर्ट का एक न्यायदृष्टांत पेश करता है कुलदीप शर्मा विरूद्ध मप्र राज्य 2012 (2) एमपीएलजे 453, जिसमें स्पष्ट कहा गया है कि मामले में पैरवी अधिवक्ता नहीं कर सकते हैं क्योंकि विधि में उप वन मंडलाधिकारी की अदालत विचारण न्यायालय नहीं है। इसके ठीक विपरीत पुनरीक्षण न्यायालय में विजय सिंग विरूद्ध मप्र राज्य 2017 (1) एमपीजेआर 151 को पेश किया जाता हैं जिसमें हाईकोर्ट ने यह पाया कि अभिलेख पर वकालतनामा नहीं पाये जाने से राजसात के आदेश को निरस्त करते हुए प्रकरण को नए सिरे से निराकरण हेतु लौटाया गया।
हाई कोर्ट का न्यायदृष्टांत में कुलदीप शर्मा के मामले में प्राधिकृत अधिकारी सह उप वन मंडलाधिकारी की अदालत विचारण न्यायालय नहीं हैं, अधिवक्ता अधिनियम में पैरवी का स्थल वह है जहां पर गवाहों का परीक्षण एवं प्रतिपरीक्षण किया जाता है। उप वन मंडलाधिकारी धारा 52 की कार्यवाही के दौरान साक्ष्य लेखबद्ध करते हैं। यह बात पुनरीक्षण न्यायालय को भी दिखाई पड़ती हैं, लेकिन अदालत नजर अंदाज कर देती हैं।
अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश का सुझाव था कि प्राधिकृत अधिकारी सह उप वन मंडलाधिकारी की अदालत में विधिक सहायक की मांग लिखित में करना चाहिए था। अधिवक्ता की नियुक्ति की अनुमति के लिए आवेदन करना चाहिए था। एक अन्य मामले में एैसा प्रयास भी किया गया, लेकिन वन अधिकारी ने कुलदीप शर्मा के मामले का हवाला देते हुए आवेदन पत्र निरस्त कर दिया और वाहन स्वामी को गवाहों का परीक्षण एवं प्रतिपरीक्षण करने के लिए मजबूर कर दिया। वाहन स्वामी ने वाहन का मूल्यांकन करवाना उचित समझा और वाहन का मूल्य जमा कर दिया। परिणामतः दोहरा नुक्सान उठाना पड़ा।
विधि न्याय एवं मानवाधिकार का सवाल यह हैं कि प्राधिकृत अधिकारी एवं उप वन मंडलाधिकारी की अदालत में धारा 52 की कार्यवाही के दौरान वाहन स्वामी की ओर से गवाहों का परीक्षण एवं प्रतिपरीक्षण हेतु अधिवक्ता पैरवी क्यों नहीं कर सकता हैं? यह विषय राज्य अधिवक्ता परिषद के समक्ष जिला अभिभाषक संघ को उठाना चाहिए।
Bharat Sen, Advocate, Chamber No. 24, Civil Court BETUL (MP), Mob-9827306273